मिर्च की उन्नत खेती

मिर्च एक नकदी फसल है। इसकी व्यवसायिक खेती करके अधिक लाभ कमाया जा सकता है। यह हमारे भोजन का प्रमुख अंग है। स्वास्थ्य की दृष्टि से मिर्च में विटामिन ए व सी पाये जाते हैं एवं कुछ लवण भी होते हैं। मिर्च को अचार, मसालों और सब्जी के रुप में भी काम में लिया जाता है।


जलवायु एवं भूमि


मिर्च पर पाले का प्रकोप अधिक होता है अतः पाले की आंशका वाले क्षेत्रों में इसकी अगेती फसल लेनी चाहिए। अधिक तापक्रम होने पर पौधों में फल नहीं बनते हैं तथा फूल व फलों का झड़ना प्रारम्भ हो जाता है। भूमी का पी. एच. मान 6 से 7.5 के बीच होना अधिक उपयुक्त रहता है। अच्छी फसल के लिए उपजाऊ दोमट भूमि, जिसमें पानी का अच्छा निकास हो, उपयुक्त रहती है।


उन्नत किस्में


चरपरी मसाले वाली - एन पी 46ए, पूसा ज्वाला, मथानिया लौंग, पन्त सी-1, जी 3, जी 5, हंगेरियन वैक्स (पीले रंग वाली), पूसा सदाबहार (निर्यात हेतु बहुवर्षीय), पंत सी-2, जवाहर 218, आरसीएच 1, एक्स 235, एल एसी 206, बी. के. ऐ.2,  एस. सी. ए.235।


शिमला मिर्च (सब्जी वाली)- यलो वंडर, कैलिफोर्निया वंडर, बुलनोज व अर्का मोहिनी।


नर्सरी तैयार करना - सबसे पहले नर्सरी में बीजों की बुवाई कर पौध तैयार की जाती है। खरीफ की फसल हेतु मई-जून में तथा गर्मी की फसल हेतु फरवरी-मार्च में नर्सरी में बीजों की बुवाई करें। एक हैक्टेयर में पौध तैयार करने हेतु एक से डेढ़ किलोग्राम बीज तथा संकर बीज 250 ग्राम/हैक्टयर पर्याप्त रहता है। नर्सरी वाले स्थान की गहरी जुताई करके खरपतवार रहित बना कर एक मीटर चौड़ी, 3 मीटर लम्बी व 10-15 सेंमी, जमीन से उठी हुई क्यारियाँ तैयार कर लें।


बीजों को बुवाई से पूर्व कैप्टान या बाविस्टिन 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें, जिससे बीज जनित रोगों का प्रकोप न हो सके। पौधशाला में कीड़ों के नियंत्रण हेतु 3 ग्राम फोरेट 10 प्रतिशत कण या 8 ग्राम कार्बोफ्यूरॉन 3 प्रतिशत कण प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से भूमि में मिलायें या मिथाइल डिमेटोन 0.025 प्रतिशत या एसीफेट 0.02 प्रतिशत का पौध पर छिड़काव करें। बीजों की बुवाई कतारों में करनी चाहिए। नर्सरी में विषाणु रोगों से बचाव के लिए मिर्च की पौध को 50 मेश की सफेद नाइलोन नेट से ढककर रखें।


रोपण - नर्सरी में बुवाई के 4-5 सप्ताह बाद पौध रोपने योग्य हो जाती है। इस समय इसकी पौध की रोपाई खेत में करें। गर्मी की फसल में कतार से कतार की दूरी 60 सेंमी. तथा पौधों के बीच की दूरी 30 से 45 सेंमी. रखें। खरीफ की फसल के लिए कतार से कतार की दूरी 45 सेंमी. और पौध से पौध की दूरी 30 से 45 सेंमी. रखें। रोपाई शाम के समय करें और रोपाई के तुरंत बाद सिंचाई कर दें। पौध को 40 ग्राम एजोस्पाइरिलम, 2 लीटर पानी के घोल में 15 मिनट डुबोकर रोपण करें।


खाद एवं उर्वरक - खेत की अंतिम जुताई से पूर्व प्रति हैक्टेयर लगभग 150 से 250 क्विंटल अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद खेत में डाल कर भली भॉँति मिला दें। इसके अतिरिक्त मिर्च में अच्छा उत्पादन लेने के लिए 70 किलोग्राम नत्रजन, 48 किलोग्राम फॉस्फोरस एवं 50 किलोग्राम पोटाश प्रति हैक्टेयर की आवश्यकता होती है। नत्रजन की आधी मात्रा रोपाई से पूर्व भूमि की तैयारी के समय तथा शेष मात्रा 30 से 45 दिन बाद दो बराबर भागों में बाँटकर खेत में छिड़क कर तुरन्त सिंचाई कर दें।


सिंचाई एवं निराई-गुड़ाई - गर्मी में 5 से 7 दिन के अंतराल पर और बरसात में आवश्यकतानुसार सिंचाई करें। खरपतवार नियंत्रण हेतु समय-समय पर निराई-गुड़ाई करनी चाहिए। खरपतवार नियंत्रण हेतु 200 ग्राम ऑक्सीफ्लूरोफेन प्रति हैक्टेयर का पौध रोपण के ठीक पहले छिड़काव (600 से 700 लीटर पानी में घोल बनाकर) करें।


पौध संरक्षण


सफेद लट - इस कीट की लटें पौधों की जड़़ों को खाकर नुकसान पहुँचाती हैं तथा इससे फसल को काफी हानि होती है। नियंत्रण हेतु फोरेट 10 जी या कार्बोफ्युरॉन 3 जी 25 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से रोपाई से पूर्व जमीन में मिला देना चाहिए।


सफेद मक्खी, पर्णजीवी (थ्रिप्स) हरा तेला व मोयला - ये कीट पौधों की पत्तियों व कोमल शाखाओं का रस चूसकर कमजोर कर देते हैं। इनके प्रकोप से उत्पादन घट जाता है। नियंत्रण हेतु मैलाथियॉन 50 ईसी या मिथाइल डिमेटोन 25 ईसी एक मिलीलीटर या इमिडाक्लोरोप्रिड 0.5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें। 15-20 दिन बाद पुनः छिड़काव करें।


मूल ग्रंथि सूत्रकृमि - इसके प्रकोप से पौधों की जड़ों में गाँठें बन जाती हैं तथा पौधे पीले पड़ जाते हैं। पौधों की बढ़वार रुक जाती है जिससे पैदावार में कमी आ जाती है। नियंत्रण हेतु रोपाई के स्थान पर 25 किलोग्राम कार्बोफ्युरॉन 3 जी प्रति हैक्टेयर की दर से भूमि में मिलायें।


आर्द्र गलन - इस रोग का प्रकोप पौधे की छोटी अवस्था में होता है। जमीन की सतह पर स्थित तने का भाग काला पड़ कर कमजोर हो जाता है तथा नन्हें पौधे गिरकर मरने लगते हैं। नियंत्रण हेतु बीज को बुवाई से पूर्व थाइरम या कैप्टान 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें। नर्सरी में बुवाई से पूर्व थाइरम या कैप्टान 4 से 5 ग्राम प्रति वर्गमीटर की दर से भूमि में मिलायें। नर्सरी आसपास की भूमि से 4 से 6 इंच उठी हुई भूमि में बनायें।


श्याम व्रण (एन्थ्रेक्नोज) - पत्तियों पर छोटे-छोटे काले धब्बे बन जाते हैं तथा पत्तियाँ झड़ने लगती हैं। उग्र अवस्था में शाखाएं शीर्ष से नीचे की तरफ सूखने लगती हैं। पके फलों पर भी बीमारी के लक्षण दिखाई देते हैं। नियंत्रण हेतु जिनेब या मैंकोजेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल के 2 से 3 छिड़काव 15 दिन के अन्तराल से करें।


पर्णकुंचन व मोजेक विषाणु रोग - पर्णकुंचन रोग के प्रकोप से पत्ते सिकुड़कर छोटे रह जाते हैं व झुर्रियाँ पड़ जाती हैं। मोजैक रोग के कारण पत्तियों पर गहरे व हल्का पीलापन लिये हुए धब्बे बन जाते हैं। रोगों को फैलाने में कीट सहायक होते हैं। नियंत्रण हेतु रोग ग्रसित पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए। रोग को आगे फैलने से रोकने हेतु डाइमिथोएट 30 ईसी एक मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें। नर्सरी तैयार करते समय बुवाई से पूर्व कार्बोफ्यूरॉन 3 जी 8 से 10 ग्राम प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से भूमि में मिलायें। पौध रोपण के समय स्वस्थ पौधे काम में लें। पौध रोपण के 10 से 12 दिन बाद मिथाइल डिमेटोन 25 ईसी एक मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें। छिड़काव 15 से 20 दिन के अन्तर पर आवश्यकतानुसार दोहरायें। फूल आने पर मैलाथियान 50 ईसी एक मिलीलीटर प्रति लीटर के हिसाब से छिड़कें।


तना गलन - ग्रीष्मकालीन मिर्च में तना गलन के नियंत्रण हेतु टॉपसिन एम 0.2 प्रतिशत से बीजोपचार करके बुवाई करें एवं पौधों को रोपाई से पहले आधे से एक घंटे तक 0.2 प्रतिशत के घोल में डुबोकर लगायें तथा मृदा मंजन करायें।


तुड़ाई एवं उपज - हरी मिर्च के लिए तुड़ाई फल लगने के 15-20 दिन बाद कर सकते हैं, एक तुड़ाई से दूसरे तुड़ाई का अन्तराल 12-15 दिन का रखते हैं। फलों की तुड़ाई फल के पूर्ण विकसित होने पर ही करनी चाहिए। हरी चरपरी मिर्च की लगभग 150 से 200 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तथा 15-25 क्विंटल प्रति हैक्टेयर सूखी लाल मिर्च प्राप्त की जा सकती है।